प्रदेश में एनीमिया यानी खून की कमी एक गंभीर स्वास्थ्य चुनौती है। इसे हराने के लिए जरूरी है कि समय रहते इसकी जानकारी मिल जाए। इसके लिए जांच जरूरी है। जांच हीमोग्लोबिन मीटर के बिना हो नहीं सकती। सिर्फ लक्षणों के आधार पर इलाज शुरू कर देना डाक्टरों और अस्पतालों को झोलाछाप डाक्टरों की श्रेणी में ले आने के लिए पर्याप्त है। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में एनीमिया के खिलाफ सक्रिय अभियान चलाया जा रहा है, लेकिन हीमोग्लोबिन मीटर खरीदी का टेंडर निरस्त करना सरकार की नीति और क्रियान्वयन में विरोधाभास को दर्शाता है। यह गंभीर समस्या है कि टेंडर न होने के कारण महिलाओं और बच्चों की रक्त अल्पता संबंधी जांच रुकी हुई है। इसके लिए सख्ती जरूरी है, ताकि ऐसी विसंगतियों को बढ़ावा न मिलने पाए। सोचिए, जांच और चिकित्सा के अभाव में कितनी महिलाओं और बच्चों की जान चली जाती है। 

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार प्रदेश में जहां वर्ष 2016 में 15 से 49 आयु वर्ग की 47 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित थीं, वहीं वर्तमान में 61 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं। वहीं 51 फीसद गर्भवती महिलाएं एनीमिया से पीड़ित रहती हैं। राज्य सरकार के अथक प्रयासों के बावजूद पिछले पांच वर्षों में एनीमिया से पीड़ित महिलाओं की दर में लगभग 14 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो राज्य की मातृ एवं शिशु मृत्यु दर बढ़ाने में एक महती भूमिका निभा सकती है। स्वास्थ्य विभाग की मानें तो एनीमिया को दूर करने के लिए स्वास्थ्य केंद्रों में महिलाओं की स्क्रीनिंग, इलाज और दवाएं जैसे आयरन, विटामिन की गोलियां निश्शुल्क बांटी जा रही हैं

निरस्तीकरण का पहला अर्थ यह हो सकता है कि अस्पतालों के पास पर्याप्त मात्रा में मीटर हैं। दूसरा अर्थ यह कि प्रशासन की तरफ से लापरवाही बरती जा रही है। पहला कारण कुछ संदिग्ध लगता है, क्योंकि जनप्रतिनिधि के साथ-साथ सीजीएमएससी के संचालक ने सवाल उठाए हैं। आशा की जानी चाहिए कि टेंडर जल्द कराया जाएगा और एनीमिया जांच कार्य को गति दी जाएगी।