विश्व में भारतवर्ष ही एक ऐसा देश है जहां सनातन काल से धर्म-अध्यात्म की निर्झरिणी प्रवाहमान है। शास्त्रों में वर्णित 33 कोटि देवी-देवताओं में देवी मां के विभिन्न स्वरूपों का स्थान सर्वोपरि माना गया है । वे सर्वपूज्या हैं और अपने विभिन्न रूपों में सृष्टि का पालन करती हैं । कभी बुद्धि दायिनी सरस्वती, कभी धन प्रदायिनी लक्ष्मी, कभी शक्ति स्वरूपा दुर्गा, संगीत की देवी शारदा, महाकाली-योगमाया, महामाया, शैलरूपा आदि रूपों में । इन्हीं में से एक स्वरूप है मां विंध्यवासिनी का।
मां विंध्यवासिनी के संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं श्रीमद्भागवत पुराण में उल्लेख मिलता है कि असुरों का नाश करने हेतु पराशक्ति देवी योगमाया ने मां यशोदा के गर्भ से गोकुल में नंद बाबा के घर कन्या रूप में जन्म लिया था । इसी समय मथुरा के कारागार में मथुरा नरेश कंस की बहन देवकी ने भी आठवें पुत्र के रूप में कृष्ण को जन्म दिया, जिसे पिता वासुदेव ने घनघोर बरसात वाली काली रात में मां यशोदा के पास सुरक्षित पहुंचा दिया तथा उनकी पुत्री योगमाया को अपने साथ ले आए। प्रातः जब कंस को देवकी की आठवीं संतान की सूचना प्राप्त हुई तो उसे कन्या जन्म पर आश्चर्य हुआ क्योंकि देवकी के आठवें पुत्र से कंस के वध की देववाणी हुई थी। जब कंस ने इस कन्या को पत्थर पर पटक कर मारना चाहा तो वह उसके हाथ से छूटकर दिव्य रूप में भविष्यवाणी करते हुए आकाश में समाहित हो गई कि उसका वध करने वाला पृथ्वी पर आ चुका है ।कथा के अनुसार जब देवताओं ने योगमाया से पुनः देवलोक चलने का आग्रह किया तो उन्होंने असुरों का नाश करने पृथ्वी पर विंध्याचल पर्वत में रहने की इच्छा प्रकट की और यहीं वास करने लगीं । चूँकि उन्होंने विंध्य पर्वत को अपना निवास बनाया था अतः उन्हें विंध्यवासिनी के नाम से जाना जाने लगा।
शिव पुराण के अनुसार माँ विंध्यवासिनी को सती का रूप माना गया है। कहा जाता है कि जिन-जिन स्थानों पर सती के शरीर के अंश गिरे वहां-वहां शक्ति पीठ स्थापित हुए, किंतु विंध्याचल के इस पर्वत में सती अपने पूर्ण रूप में विद्यमान है। इसीलिए इस स्थान की विशेष महत्ता है। मां विंध्यवासिनी को वनदुर्गा के नाम से भी जाना जाता है संभवतः विंध्य पर्वत के घने जंगल  में रहने कारण उन्हें वनदुर्गा कहा जाने लगा । स्थानीय लोगों के अनुसार इनका बिंदुवासिनी नाम भी प्रचलित है । विद्वानों के अनुसार बिंदु का तात्पर्य उस बिंदु से है जिससे ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई है। सृष्टि के आरंभ से ही विंध्यवासिनी देवी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके शुभाशीष का परिणाम है अतः उन्हें सृष्टि की कुलदेवी के रूप में मान्यता प्राप्त है । माना जाता है कि सृष्टि के इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। ब्रह्मा, विष्णु, महेश स्वयं मां विंध्यवासिनी को मातृ तुल्य मानते हैं। एक कथा के अनुसार यह वही स्थान है जहां मां भगवती की कृपा से विष्णुजी को सुदर्शन चक्र प्राप्त हुआ था ।
मां विंध्यवासिनी का प्रमुख मंदिर उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे मिर्जापुर से 8 किलोमीटर दूर विंध्याचल में स्थित है। ईश्वर की असीम अनुकंपा है कि अब माँ विंध्यवासिनी का एक सुंदर मंदिर 'जबलपुर' नगर के निकट जिला 'कटनी' के 'पिपरहटा' गांव में निर्मित किया गया है। जिसे "माँ विंध्यवासिनी देवीधाम" के नाम से जाना जाता है । यह मंदिर जबलपुर के जाने-माने शिक्षाविद  प्रभातचंद श्रीवास्तव जी के परिवार द्वारा स्व. प्यारेलाल श्रीवास्तव 'पटवारी बाबा' की स्मृति में स्थापित किया गया है। माँ विंध्यवासिनी उनकी कुलदेवी हैं और पिपरहटा उनका पैतृक गृह ग्राम है। हुआ यूं कि शिक्षा व्यवसाय तथा अन्य उत्तरदायित्व के निर्वहन हेतु परिवार के सभी सदस्य अन्यत्र चले गए । लंबी अवधि तक पिपरहटा स्थित पटवारी बाबा की विशाल हवेली देखरेख के अभाव में  मिट्टी के ढेर में परिवर्तित हो गई । इसमें एक मंदिर भी था । गत कुछ वर्षों से प्रभातचंद जी को बार-बार कुलदेवी माँ विंध्यवासिनी तथा पूज्य पिताश्री पटवारी बाबा से अंतः प्रेरणा प्राप्त हो रही थी कि इस स्थान पर मंदिर निर्माण किया जाए। उन्होंने  चुनौती के रूप में इसे स्वीकार किया। परिणाम स्वरूप कटनी से 12 किलो मीटर दूर एक बड़े भूखंड में मां विंध्यवासिनी का एक सुंदर मंदिर तैयार कर मां की भव्य, मनोहारी प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई। इस कार्य में जबलपुर के विद्वान  पंडित कामता तिवारी के मार्गदर्शन में श्रीवास्तव परिवार के सदस्यों सहित श्री विजय जायसवाल एवं ग्राम 'पिपरहटा' के श्री प्रमोद पाण्डेय जी के परिवार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता जिनके सौजन्य से क्षेत्र को एक सिद्ध धार्मिक व पर्यटन स्थल प्राप्त हुआ।  मंदिर निर्माण कार्य प्रारंभ होने मात्र से ही न केवल ग्राम पिपरहटा वरन आस-पास के क्षेत्रों में भी सकारात्मकता से पूर्ण उत्साह, उमंग, जोश और प्रसन्नता दिखाई देने लगी।
माँ विंध्यवासिनी देवी धाम के नाम से निर्मित यह मंदिर जबलपुर से लगभग 112  कि.मी. और कटनी से मात्र 12 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। मंदिर तक पहुंचने का रास्ता पक्का, सीधा और अत्यंत सुगम है। बड़े भूखंड में निर्मित इस मंदिर में ध्यान, पूजन-अर्चन करने हेतु पर्याप्त स्थान है। धर्म, विज्ञान, आस्था, आध्यात्म, सौहार्द की नींव पर खड़ा यह विंध्यवासिनी धाम न केवल लोगों के श्रद्धा और आकर्षण का केंद्र बन रहा है वरन माँ के दरबार में श्रद्धालु अपनी अर्जी भी लगा रहे हैं। ग्राम वासियों के अनुसार माँ विंध्यवासिनी की कृपा से अनेक चमत्कारिक शुभ संकेत भी दिखाई दे रहे हैं । श्रद्धालुओं की भीड़ बढ़ती जा रही है। इस स्थान पर आकर क्लांत मन को शांति मिलती है, सुख-समृद्धि की कामना पूर्ण होती है । आत्मिक शांति तथा संकल्प सिद्धि वाले स्थान माँ विंध्यवासिनी धाम के दर्शन लाभ हेतु एक बार अवश्य पहुंचना चाहिए।